29 सितंबर, 2011

electric current is produced in the human body too

Extremely weak electric current is produced in the human body by the movement of charged particles (ions), called ionic currents. When weak ionic currents flow along the nerve cells, they produce a magnetic field in our body. For example, when we touch something with our hand, our nerves carry electric impulse to the appropriate muscles. And this electric impulse creates a temporary magnetism in the body. The magnetism produced in the human body is very, very weak as compared to the Earth’s magnetism. The two main organs of the human body where the magnetic field produced is quite significant are the Heart and the Brain. In the human eye, an image is formed by the lens on the retina (which is made up of light sensitive cells rods and cones). Optical signals are converted into electrical signals by these optical cells. The Outer ear collects sound which vibrate the ear drum and cochlea converts it into electrical signals. When we taste, taste buds presents on the tongue converts it into electrical signals. For example when we touch lemon juice we feel a strong sensation. In our body electro-chemical reaction is going on due to which we think, feel, see etc. Our brain perceives everything in terms of electrical signals. Our feeling anger, happiness, and sadness are because of electro-chemical reaction which produces electrical signals. The magnetism produced inside the human body forms the basis of a technique called Magnetic Resonance Imaging (MRI) which is used to obtain images of the internal parts of our body. MRI is an important tool in medical diagnosis because through MRI scans doctors see the internal parts of the body. Magnetism in animals like the aquatic bacteria, shrimps, dolphins and whales etc, is due to the presence of little crystal of magnetite (lodestone) in their bodies. These magnetic crystals are formed from iron (which is taken in by the animals from water) and oxygen which they breathe in. The magnetic crystals present in the animals act as internal magnetic compasses and help the animal to respond to the Earth’s magnetic field. For example, several species of aquatic bacteria use their in-built magnets to swim along the Earth’s magnetic field. Interesting and true!

24 सितंबर, 2011

a working zero environmental impact thermal comfort system that does not use grid power, emit any CO2 or water in any form.

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दुनिया के पहले वाणिज्यिक लहर ऊर्जा संयंत्र की शुरुआत..स्पेन में लहरों से बनी बिजली

साभार रेडियो डायचेवेली
स्पेन में लहरों से बनी बिजली
शनिवार, 24 सितंबर 2011
समुद्र की लहरों से स्पेन में बिजली बनाई जा रही है। हालांकि यह प्रक्रिया थोड़ी महंगी है, लेकिन कंपनी का कहना है कि तटीय इलाकों के लिए यह तकनीक अच्छी है। 600 लोगों को बिजली मिल रही है।

इस साल गर्मियों में दक्षिणी स्पेन में दुनिया के पहले वाणिज्यिक लहर ऊर्जा संयंत्र की शुरुआत हो गई। भारी लागत होने के बावजूद इस संयंत्र से दक्षिणी स्पेन के एक शहर को बिजली की सप्लाई भी हो रही है। यह प्लांट अन्य तटीय इलाकों के लिए एक मॉडल साबित हो सकता है।

स्पेन के छोटे से तटीय शहर मुत्रिको को देखकर यह कहना मुश्किल है कि इस शहर में हाईटेक पावर प्लांट भी लग सकता है। लेकिन सैन सेबास्टियन से 30 किलोमीटर दूर बास्के शहर के 600 लोगों को समुद्र की लहरों से बनने वाली बिजली मिल रही है। समुद्री लहरों से बिजली बनाने वाला संयंत्र इसी जुलाई में शुरू हुआ।

वाह क्या तकनीक है : बास्के शहर के संयंत्र में काम करने वाले ऊर्जा इंजीनियर खोजे इगनाशियो होर्माएचे कहते हैं, 'जब लहरों से ऊर्जा बनाने की बात आएगी तो लोग मुत्रिको का हवाला देंगे।' वह कहते हैं कि लहरों से ऊर्जा बनाने का यह पहला वाणिज्यिक ऑपरेशन है जिससे ग्राहकों को बिजली मिलती है।

यह संयंत्र बंदरगाह की दीवार से टकराने वाली लहरों से ऊर्जा बनाती है। बिजली बनाने वाली कंपनी एंटे वास्को दे ला एनर्जिया (ईवीई) ने बंदरगाह और समुद्र के बीच बनी दीवार में 16 गड्ढे बनाए हैं। जब लहरें इन गड्ढों में पानी लेकर आती हैं तो टरबाइन से हवा को धक्का दिया जाता है और बिजली पैदा होती है।

600 लोगों को बिजली : इसी तरह की तकनीक पर पिछले 10 सालों से स्कॉटलैंड में भी शोध और सुधार हो रहा है, लेकिन अब तक इसे वाणिज्यिक परिपक्वता नहीं मिल पाई है। दुनिया भर में लहरों से बनने वाली ऊर्जा के 60 प्रोजेक्ट चल रहे हैं। कुछ पानी के नीचे स्पिन ब्लेड का इस्तेमाल कर बिजली बनाते हैं तो कुछ लोग अन्य तकनीक का इस्तेमाल करते हैं।

लेकिन लिस्बन के लहर ऊर्जा केंद्र के शोधकर्ता फ्रैंक न्यूमैन के मुताबिक मुत्रिको का प्लांट आर्थिक रूप से निकट भविष्य में सफल रहेगा। इस प्लांट में 300 किलोवॉट बिजली बनती है जिससे शहर की 10 फीसदी जरूरत पूरी होती है।

ऐसे होगी बिजली की मांग पूरी : इस प्लांट को बनाने में 70 लाख यूरो की लागत आई है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल का अनुमान है कि लहरों से बनने वाली बिजली विश्व की 30 फीसदी ऊर्जा मांग को पूरा कर सकती है। लेकिन अक्षय ऊर्जा के और स्थापित तकनीक के मुकाबले में लहरों से बनने वाली बिजली की तकनीक प्रारंभिक अवस्था में है।

मुत्रिको का संयंत्र दो साल की देरी से तैयार हुआ है। आलोचकों का कहना है प्लांट पर हुए निवेश के मुकाबले में उत्पादन कहीं कम है। लेकिन संयंत्र चलाने वाली कंपनी को विश्वास है कि इस तरह से नई तकनीक बनेगी और नए बाजार खुलेंगे।

रिपोर्ट : गिरो रॉयटर/आमिर अंसारी
संपादन : महेश झा

22 सितंबर, 2011

आखिर सरकार समाज को क्या सिखाना चाहती है ??


किसी की बड़ाई करने के लिये किसी दूसरे की बुराई करना जरूरी है क्या ?
आज ई टीवी म.प्र. पर म. प्र. सरकार का एक  विज्ञापन देखा .
लोकसेवा गारंटी अधिनियम की बड़ाई करते हुये , बिजली विभाग के इंजीनियर की सरे आम बुराई की गई है कि वे ट्रांस्फारमर बदलने के लिये वे ग्रामीणो की नही सुनते हैं .
विज्ञापन में ग्रामीणो को सिखाया गया है कि इंजीनियर साहब को लोकसेवा गारंटी अधिनियम की ढ़मकी दो , काम हो जावेगा .
आखिर सरकार समाज को क्या सिखाना चाहती है ?? मेरा मानना है कि इस तरह का नकारात्मक सरकारी विज्ञापन अविलंब बंद किया जाना चाहिये !

19 सितंबर, 2011

गंदे व बदबूदार पानी का उपयोग ऊर्जा उत्पादन में किया जा रहा है।

उत्तरप्रदेश के हापुड़ में रहने वाले रामपाल नाम के एक मिस्त्री ने गंदे नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा किया है। उसने यह जानकारी संबंधित अधिकारियों को दी। सराहना की बजाय उसे हर जगह मिली फटकार। आखिरकार रामपाल ने अपना घर साठ हजार रुपए में गिरवी रख दिया और गंदे पानी से ही दो सौ किलो वॉट बिजली पैदा करके दिखा दी। रामपाल का यह कारनामा किसी चमत्कार से कम नहीं है। जब पूरा देश बिजली की कमी से बेमियादी कटौती की हद तक जूझ रहा है, तब इस वैज्ञानिक उपलब्धि को उपयोगी क्यों नहीं माना जाता? जबकि इस आविष्कार के मंत्र में गंदे पानी के निस्तारण के साथ बिजली की आसान उपलब्धता जुड़ी है।
बात चाहे कूड़े की हो, या फिर संड़ाध भरे पानी की, वैज्ञानिक तरीका अपनाकर उसका बेहतर उपयोग किया जा सकता। अमेरिका के शोधकर्ताओं व वैज्ञानिकों ने हाल ही में मल-मूत्र व अन्य गंदे पानी के उपयोग को सार्थक किया है। नाला-नालियों, पोखरों व नदियों में अरबों गैलन बह जाने वाले गंदे व बदबूदार पानी का उपयोग ऊर्जा उत्पादन में किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि साफ सुथरे पानी की तुलना में गंदे पानी से 20 प्रतिशत अधिक ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है। सीवर के पानी का सर्वाधिक उपयोग अमेरिका में करके बिजली बनायी जा रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक अमेरिका में हर साल औसतन 14 ट्रिलियन गैलन गंदे पानी का उपयोग ऊर्जा बनाने के लिए किया जा रहा है। अमेरिकी शोधकर्ता एलिजाबेथ एस. हैड्रिक कहती हैं ‘गंदे पानी का उपयोग ऊर्जा बनाने में बेहतर साबित हुआ है।’ अमेरिका में बिजली की कुल खपत में करीब डेढ़ प्रतिशत सीवर व अन्य गंदे पानी से बन रही बिजली से पूर्त की जा रही है। शोध व अध्ययन केातीजे बताते हैं, एक गैलन गंदे व बेकार पानी से पांच मिनट तक सौ वॉट का बल्ब आसानी से जलाया जा सकता है। इतना ही नहीं, सीवरेज व गंदे पानी में मौजूद कार्बनिक अणुओं को ईधन में भी बदला जा सकता है जिसका उपयोग अन्य कई क्षेत्रों में किया जा सकता है। यह शोध देश दुनिया के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। आज भी अरबों गैलन सीवरेज व अन्य गंदा पानी नाला-नालियों, तालाबों व नदियों में बहाया जाता है क्योंकि इसे व्यर्थ समझा जाता है। गंदे जल के शुद्धीकरण में वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग होने से नदियों का प्रदूषण भी काफी हद तक कम हो सकता है। साथ ही पर्यावरण संरक्षण को बल मिलेगा। इसके लिए सरकार, सामाजिक संस्थाओं व वैज्ञानिकों को सार्थक पहल करनी होगी ताकि घरेलू गंदे पानी का उपयोग बिजली बनाने व अन्य उपयोग के लिए किया जा सके। अपने देश में केवल दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार व पश्चिम बंगाल को ही देखें तो अरबों गैलन सीवरेज हर दिन सीधे गंगा व यमुना नदियों में गिरता है जिससे इन नदियों का प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। गंदे जल का शोधन किया जाये तो गंगा-यमुना जैसी नदियों का प्रदूषण ता रोका ही जा सकता है, इससे अरबों की धनराशि बचेगी।

मंगलटर्बाइन पम्प

मंगलटर्बाइन  पम्प
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के भैलोनी लोध गांव के रहने वाले मंगल सिंह ने ‘मंगल टर्बाइन’ बना डाला है। यह सिंचाई में डीजल और बिजली की कम खपत का बड़ा व देशी उपाय है। मंगल सिंह ने अपने इस अनूठे उपकरण का पेटेंट भी करा लिया है। यह चक्र उपकरण-जल धारा के प्रवाह से गतिशील होता है और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और चारा-कटाई मशीन आसानी से चल सकती है।
इस चक्र की धुरी को जेनरेटर से जोड़ने पर बिजली का उत्पादन भी शुरू हो जाता है। अब इस तकनीक का विस्तार बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तो हो ही रहा है, उत्तराखंड में भी इसका इस्तेमाल शुरू हो गया है। पहाड़ पर पेयजल भरने की समस्या से छूट दिलाने के लिए नलजल योजना के रूप में इस तकनीक का प्रयोग सुदूर गांव में भी शुरू हो गया है।

18 सितंबर, 2011

परमाणु बिजलीघर को बंद करना आसान नहीं।


जर्मनी अपने परमाणु बिजलीघरों को क्रमिक रूप से बंद कर रहा है। कुछ बिजलीघरों का लाइसेंस बढ़ाया नहीं गया है और बाकी को आने वाले सालों में धीरे-धीरे बंद कर दिया जाएगा। लेकिन परमाणु बिजलीघर को बंद करना आसान नहीं। 

राइनलैंड पलैटिनेट के मुइलहाइम कैरलिष में परमाणु संयंत्र 1988 से बंद पड़ा है। 2004 से उसे डिसमैंटल किया जा रहा है। ग्राइफ्सवाल्ड लुबमीन के बिजलीघर को बंद करने की शुरुआत 1995 में हो चुकी है, लेकिन यह काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। लेकिन कार्ल्सरूहे इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के प्रमुख योआखिम क्नेबेल कहते हैं कि भले ही संयंत्र के डिसमैंटल करने की प्रक्रिया लंबी हो, जैसे ही परमाणु बिजलीघर को बंद किया जाता है दुर्घटना का खतरा नाटकीय रूप से कम हो जाता है।

उनके शब्दों में, 'परमाणु बिजलीघर को बंद करने का मतलब होता है नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया को रोकना। और यही परमाणु बिजली घर में खतरे का मुख्य कारण होता है।'

जर्मन सरकार की ओर से परमाणु बिजलीघरों को बंद करने की निगरानी कर रहे भौतिकशास्त्री श्टेफान थियरफेल्ड कहते हैं, 'यह एक कार की तरह होता है, जिसमें मोटर नहीं है। ऐसी कार अपने आप अचानक चलना शुरू नहीं कर सकती।'

परमाणु बिजलीघर में बड़े अणुओं का विखंडन होता है। इस प्रक्रिया में ताप निकलता है जो पानी को गरम कर भाप पैदा करता है और इस भाप से एक जेनरेटर बिजली बनाता है। ठीक उसी तरह से जैसे कोयला से चलने वाले बिजलीघरों में होता है। वहां जो काम कोयला करता है वह परमाणु बिजलीघरों में परमाण्विक छड़ें करती हैं।

आम तौर पर यूरेनियम डाई ऑक्साइड की ये छड़ें ईंधन का काम करती हैं। यूरेनियम का न्यूट्रॉन द्वारा विखंडन होता है। इस प्रक्रिया में नए न्यूट्रॉन पैदा होते हैं जो फिर से यूरेनियम के अणुओं को तोड़ सकते हैं। और इस तरह विखंडन का चेन रिएक्शन शुरू होता है।

परमाणु बिजलीघरों को बंद करने के लिए रेगुलेटर छड़ों को रिएक्टर में डाला जाता है। वह न्यूट्रॉन को सोख लेते हैं और परमाणु विखंडन की प्रक्रिया को रोक देते हैं। क्नेबेल कहते हैं कि ये छड़ें उसके बाद भी ताप का उत्पादन करती रहती हैं। लेकिन पहले की अपेक्षा उसकी मात्रा बहुत कम होती है।

ईंधन वाली छड़ों में रेडियो सक्रिय पदार्थों का प्राकृतिक रूप से निकलना बिजलीघर को बंद किए जाने के बाद भी जारी रहता है। बाद में निकलने वाली गर्मी बंद कर दिए गए परमाणु बिजलीघर के ताप उत्पादन का करीब 7 प्रतिशत होती है।

क्नेबेल कहते हैं, 'परमाणु बिजलीघर का उत्पादन तुरंत बंद नहीं हो जाता। तीन महीने बाद बची हुई गर्मी गिर कर एक प्रतिशत हो जाती है।'

बंद किए गए परमाणु बिजलीघर में सबसे खतरनाक चीज परमाणु ईंधन होता है। उसे सावधानी से बाहर निकालने की जरूरत होती है। उसकी गर्मी अभी भी इतनी ज्यादा होती है कि उसे हवा से ठंडा नहीं किया जा सकता। इसलिए उसे अगले तीन से पांच साल तक ठंडा करने के लिए पानी से भरे कंटेनर में रखा जाता है। क्नेबेल कहते हैं कि उसे लगातार ठंडा रखने की जरूरत है। यदि गर्मी से पानी भाप बनकर उड़ जाता है, तो ईंधन की छड़ें इतनी गर्म हो सकती हैं कि वे गलना शुरू कर दें।

हनोवर की इंटैक कंपनी के विकिरण विशेषज्ञ वोल्फगांग नौएमन बताते हैं कि सबसे पहले छड़ का धातु वाला खोल गलने लगता है। उनका कहना है कि बाद में रासायनिक प्रतिक्रिया से हाइड्रोजन निकल सकता है जिसके कारण धमाका हो सकता है, जैसा कि जापान फुकुशिमा में हुआ।

श्टेफान थियरफेल्ड भरोसा दिलाते हुए कहते हैं कि यह सब सैद्धांतिक रूप से संभव है, लेकिन व्यवहार में निहायत असंभव। पानी के टैंक छह से आठ मीटर ऊंचे होते हैं और आपातकालीन व्यवस्थाएं भी होती हैं जो छड़ों को ठंडा रखने का काम करती हैं।

तीन से पांच साल में छड़ें इतनी ठंडी हो जाती हैं कि उसे हवा में भी ठंडा रखा जा सकता है। योआखिम क्नेबेल कहते हैं कि उसके बाद कुछ नहीं हो सकता। उन्हें एक कास्टर कंटेनर में रख कर अंतरिम गोदाम में ले जाया जाता है।

कार्ल्सरूहे के आईटी के प्रोफेसर साशा गेंटेस का कहना है कि ईंधन वाली छड़ों को हटाए जाने के बाद लगभग एक प्रतिशत रेडियोधर्मिता प्लांट में रह जाती है। उसके बाद बाहर से अंदर की ओर प्लांट की डिसमेंटलिंग शुरू होती है। फिर पूरे संयंत्र को एक एक कर तोड़ कर उसे रेडियोधर्मिता से मुक्त किया जाता है। अत्यंत रेडियोधर्मी इलाकों में रिमोट कंट्रोल से काम लिया जाता है ताकि वहां काम कर रहे लोग रेडियोधर्मिता के शिकार न हों। कंक्रीट और इस्पात के हिस्सों को पूरे दबाव के साथ साफ किया जाता है। साफ किए हुए हिस्सों को रिसाइकल किया जा सकता है जबकि बाकी को रेडियोएक्टिव कूड़े के रूप में निबटाया जाता है।

यदि परमाणु संयंत्र की डिसमैंटलिंग उसे बंद करने के फौरन बाद शुरू करनी है तो उसमें 10 साल लगते हैं। लेकिन गेंटेस का कहना है कि व्यवहार में इसमें और ज्यादा साल लगते हैं क्योंकि विभिन्न प्रक्रियाओं का लाइसेंस लेने में भी समय लगता है।

एक अन्य प्रक्रिया में और ज्यादा समय लगता है। इसमें यूरेनियम की छड़ों को रिएक्टर से हटाने के बाद 30 साल तक संयंत्र को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। इस बीच छड़ों को लगातार ठंडा किया जाता है। संयंत्र का रखरखाव किया जाता है और उसकी रखवाली की जाती है। 30 साल में रेडियोधर्मिता कम हो जाती है और संयंत्र की डिसमेंटलिंग आसान हो जाती है। जमा रखने के लिए खतरनाक पदार्थ भी कम हो जाता है।

ये दोनों ही प्रक्रियाएं सस्ती नहीं हैं। ऊर्जा कंपनी आरडब्ल्यूई के अनुसार एक परमाणु बिजलीघर को पूरी तरह बंद करने का खर्च 50 करोड़ से लेकर एक अरब यूरो तक आता है।

बंद कर दिए गए परमाणु बिजलीघर में भी दुर्घटना हो सकती है, यदि वहां यूरेनियम की छड़ें रखी हुई हैं। थियरफेल्ड का कहना है कि छड़ें हटा लेने के बाद वहां नाभिकीय प्रक्रिया संभव नहीं है। वोल्फगांग नौएमन का कहना है कि यदि संयंत्र को ठीक तरह से बंद नहीं किया जाता तो रेडियोधर्मी पदार्थ बाहर निकल सकता है और निवासियों तके लिए खतरनाक हो सकता है, भले ही उसकी क्षमता दुर्घटना जैसी न हो।

रिपोर्ट: ब्रिगिटे ओस्टराथ/मझा 
संपादन: वी कुमार