20 दिसंबर, 2011

जल विद्युत नीति , बांधो के निर्माण , समीक्षा की आवश्यकता

जल विद्युत नीति , बांधो के निर्माण , समीक्षा की आवश्यकता

विवेक रंजन श्रीवास्तव
जनसंपर्क अधिकारी एवं अतिरिक्त अधीक्षण इंजीनियर
म.प्र. पूर्वी क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी , जबलपुर
ओ बी ११ , रामपुर , जबलपुर
मो ०९४२५८०६२५२
ब्लाग http://nomorepowertheft.blogspot.com
email vivek1959@yahoo.co.in


व्यवसायिक बिजली उत्पादन की जो विधियां वर्तमान में प्रयुक्त हो रही हैं उनमें कोयले से ताप विद्युत , परमाणु विद्युत या बाँधो के द्वारा जल विद्युत का उत्पादन प्रमुख हैं . पानी को उंचाई से नीचे गिराकर उसकी स्थितिज उर्जा को विद्युत उर्जा में बदलने की जल विद्युत उत्पादन प्रणाली लिये बाँध बनाकर ऊंचाई पर जल संग्रहण करना होता है . तापविद्युत या परमाणु विद्युत के उत्पादन हेतु भी टरबाइन चलाने के लिये वाष्प बनाना पड़ता है और इसके लिये भी बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है अतः जल संग्रहण के लिये बांध अनिवार्य हो जाता है . ताप विद्युत संयत्र से निकलने वाली ढ़ेर सी राख के समुचित निस्तारण के लिये एशबंड बनाये जाते हैं , जिसके लिये भी बाँध बनाना पड़ता है . शायद इसीलिये बांधो और कल कारखानो को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के तीर्थ कहा था .पर वर्तमान संदर्भो में बड़े बाँधों से समृद्धि की बात शायद पुरानी मानी जाने लगी है . संभवतः इसके अनेक कारणो में से कुछ इस तरह हैं .
१ बड़े क्षेत्रफल के वन डूब क्षेत्र में आने से नदी के केचमेंट एरिया में भूमि का क्षरण
२ सिल्टिंग से बांध का पूरा उपयोग न हो पाना ,वाटर लागिंग और जमीन के सेलिनाईज़ेशन की समस्यायें
३ वनो के विनाश से पर्यावरण के प्रति वैश्विक चिंतायें , अनुपूरक वृक्षारोपण की असफलतायें
४ बहुत अधिक लागत के कारण नियत समय पर परियोजना का पूरा न हो पाना
५ भू अधिग्रहण की समस्यायें ,पुनरीक्षित आकलनो में लागत में निरंतर अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि
६ सिंचाई ,मत्स्यपालन व विद्युत उत्पादन जैसी एकीकृत बहुआयामी परियोजनाओ में विभिन्न विभागो के परस्पर समन्वय की कमी
७ डूब क्षेत्र के विस्थापितों की पीड़ा , उनका समुचित पुनर्वास न हो पाना
८ बड़े बांधो से भूगर्भीय परिवर्तन एवं भूकंप
९ डूब क्षेत्र में भू गर्भीय खनिज संपदा की व्यापक हानि ,हैबीटैट (पशु व पौधों के प्राकृतिक-वास) का नुकसान
१० बड़े स्तर पर धन तथा लोगो के प्रभावित होने से भ्रष्टाचार व राजनीतीक समस्यायें

विकास गौण हो गया , मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय बन गया
नर्मदा घाटी पर डिंडोरी में नर्मदा के उद्गम से लेकर गुजरात के सरदार सरोवर तक अनेक बांधो की श्रंखला की विशद परियोजनायें बनाई गई थी , किंतु इन्ही सब कारणो से उनमें से अनेक ५० वर्षो बाद आज तक रिपोर्ट के स्तर पर ही हैं . डूब क्षेत्र की जमीन और जनता के मनोभावो का समुचित आकलन न किये जाने , विशेष रूप से विस्थापितो के पुनर्वास के संवेदन शील मुद्दे पर समय पर सही तरीके से जन भावनाओ के अनुरूप काम न हो पाने के कारण नर्मदा बचाओ आंदोलन का जन्म हुआ .इन लोगों की अगुवाई करने वाली मेधा पाटकर ने एक वृहद, अहिंसक सामाजिक आंदोलन का रूप देकर समाज के समक्ष सरदार सरोवर बाँध की कमियो को उजागर किया. मेधा तेज़तर्रार, साहसी और सहनशील आंदोलनकारी रही हैं. मेधा के नर्मदा बचाओ आंदोलन से सरकार और विदेशी निवेशकों पर दबाव भी पड़ा, 1993 में विश्व बैंक ने मानावाधिकारों पर चिंता जताते हुए पूँजीनिवेश वापस ले लिया. उच्चतम न्यायालय ने पहले परियोजना पर रोक लगाई और फिर 2000 में हरी झंडी भी देखा दी .प्रत्यक्ष और परोक्ष वैश्विक हस्तक्षेप के चलते विकास गौण हो गया , मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय बन गया . मानव अधिकार , पर्यावरण आदि प्रसंगो को लेकर आंदोलनकारियो को पुरस्कार , सम्मान घोषित होने लगे . बांधो के विषय में तकनीकी दृष्टिकोण की उपेक्षा करते हुये , स्वार्थो , राजनैतिक लाभ को लेकर पक्ष विपक्ष की लाबियिंग हो रही है . मेधा पाटकर और उनके साथियों को 1991 में प्रतिष्ठित राईट लाईवलीहुड पुरस्कार मिला , जिसकी तुलना नोबल पुरस्कार से की जाती है.मेघा मुक्त वैश्विक संस्था “वर्ल्ड कमीशन ओन डैम्स” में शामिल रह चुकी हैं. 1992 में उन्हें गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार भी मिला.
इन समस्याओ के निदान हेतु जल-विद्युत योजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी के बारे में विमर्श हो रहा है . बड़े बांधो की अपेक्षा छोटी परियोजनाओ पर कार्य किये जाने का वैचारिक परिवर्तन नीती निर्धारको के स्तर पर हुआ है .
क्लीन ग्रीन बिजली पन बिजली
जल विद्युत के उत्पादन में संचालन संधारण व्यय बहुत ही कम होता है साथ ही पीकिंग अवर्स में आवश्यकता के अनुसार जल निकासी नियंत्रित करके विद्युत उत्पादन घटाने बढ़ाने की सुविधा के चलते किसी भी विद्युत सिस्टम में जल विद्युत बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा होता है , इससे औद्योगिक प्रदूषण भी नही होता किंतु जल विद्युत उत्पादन संयत्र की स्थापना का बहुत अधिक लागत मूल्य एवं परियोजना का लंबा निर्माण काल इसकी बड़ी कमी है . भारत में हिमालय के तराई वाले क्षेत्र में जल विद्युत की व्यापक संभावनायें हैं , जिनका दोहन न हो पाने के कारण कितनी ही बिजली बही जा रही है .वर्तमान बिजली की कमी को दृष्टिगत रखते हुये , लागत मूल्य के आर्थिक पक्ष की उपेक्षा करते हुये , प्रत्येक छोटे बड़े बांध से सिंचाई हेतु प्रयुक्त नहरो में निकाले जाने वाले पानी से हैडरेस पर ही जल विद्युत उत्पादन टरबाईन लगाया जाना आवश्यक है . किसी भी संतुलित विद्युत उत्पादन सिस्टम में जल विद्युत की न्यूनतम ४० प्रतिशत हिस्सेदारी होनी ही चाहिये , जिसकी अभी हमारे देश व राज्य में कमी है . वैसे भी कोयले के हर क्षण घटते भंडारो के परिप्रेक्ष्य में वैकल्पिक उर्जा स्त्रोतो को बढ़ावा दिया जाना जरूरी है .
जल विद्युत और उत्तराखंड
भारत में उत्तराखंड में जल विद्युत की प्रचुर सँभावनाओ के संदर्भ में वहां की परियोजनाओ पर समीक्षा जरूरी लगती है . दुखद है कि बाँध परियोजनाओं के माध्यम से उत्तराखंड में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति चल रही है. शुरूआती दौर से स्थानीय जनता बाँधों का विरोध करती आयी है तो कम्पनियाँ धनबल और प्रशासन की मदद से अवाम के एक वर्ग को बाँधों के पक्ष में खड़ी करती रही है. ‘नदी बचाओ आन्दोलन’ की संयोजक और गांधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा बहन भट्ट का कहना है कि ऊर्जा की जरूरत जरूर है, लेकिन सूक्ष्म परियोजनायें प्रत्येक गाँव में बनाकर बिजली के साथ रोजगार पैदा करना बेहतर विकल्प है. इस वर्ष इण्डोनेशिया की मुनिपुनी को गांव गांव में सूक्ष्म जल विद्युत परियोजनाओ के निर्माण हेतु ही मैग्सेसे अवार्ड भी मिला है . क्या बड़े टनल और डैम रोजगार दे सकेंगे? पहाड़ी क्षेत्रो में कृषि भूमि सीमित है ,लोगों ने अपनी यह बहुमूल्य भूमि बड़ी परियोजनाओं के लिये दी, बाँध बनने तक रोजगार के नाम पर उन्हें बरगलाया गया तथा उत्पादन शुरू होते ही बाँध प्रभावित लोग परियोजनाओं के हिस्से नहीं रहे, मनेरी भाली द्वितीय पर चर्चा करते हुए राधा बहन ने विफोली गाँव का दर्द बताया, जहाँ प्रभावित ग्रामीणों ने अपनी जमीन और आजीविका के साथ बाँध कर्मचारियों की विस्तृत बस्ती की तुलना में वोटर लिस्ट में अल्पमत में आकर लोकतांत्रिक तरीको से अपनी बात मनवाने का अधिकार भी खो दिया.
चिपको आन्दोलन की प्रणेता गौरा देवी के गाँव रैणी के नीचे भी टनल बनाना इस महान आन्दोलन की तौहीन है। वर्षों पूर्व रैणी के महिला मंगल दल द्वारा इस परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये गये थे। मोहन काण्डपाल के सर्वेक्षण के अनुसार परियोजना द्वारा सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गये और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी को दुःख है कि पैसे के आगे सब बिक गये। रैणी से 6 किमी दूर लाता में एन.टी.पी.सी द्वारा प्रारम्भ की जा रही परियोजना में सुरंग बनाने का गाँव वालों ने पुरजोर विरोध किया। मलारी गाँव में भी मलारी झेलम नाम से टीएचडीसी विद्युत परियोजना लगा रही है। मलारी के महिला मंगल दल ने कम्पनी को गाँव में नहीं घुसने दिया तथा परियोजना के बोर्ड को उखाड़कर फैंक दिया। कम्पनी ने कुछ लोगों पर मुकदमे लगा रखे हैं। इसके अलावा धौलीगंगा और उसकी सहायक नदियों में पीपलकोटी, जुम्मा, भ्यूँडार, काकभुसण्डी, द्रोणगिरी में प्रस्तावित परियोजनाओं का प्रबल विरोध है।

उत्तराखंड की जल-विद्युत परियोजनाओं पर कन्ट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल (कैग) की रपट
उत्तराखंड की जल-विद्युत परियोजनाओं पर भारत के कन्ट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल (कैग) ने 30 सितंबर 2009 को एक बहुत कड़ी टिप्पणी कर स्पष्ट कहा है कि योजनाओं का कार्यान्वयन निराशाजनक रहा है। उनमें पर्यावरण संरक्षण की कतई परवाह नहीं की गई है जिससे उसकी क्षति हो रही है. कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उत्तराखंड सरकार की महत्वाकांक्षी योजना थी कि वह अपनी जलशक्ति का उपयोग तथा विकास सरकारी तथा निजी क्षेत्र के सहयोग से करेगा. राज्य की जल-विद्युत बनाने की नीति अक्टूबर 2002 को बनी। उसका मुख्य उद्देश्य था राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाया जाय और उसकी बनाई बिजली राज्य को ही नहीं बल्कि देश के उत्तरी विद्युत वितरण केन्द्र को भी मिले. उसके निजी क्षेत्र की जल-विद्युत योजनाओं के कार्यांवयन की बांट, क्रिया तथा पर्यावरण पर प्रभाव को जाँचने तथा निरीक्षण करने के बाद पता लगा कि 48 योजनाएं जो 1993 से 2006 तक स्वीकृत की गई थीं, 15 वर्षों के बाद केवल दस प्रतिशत ही पूरी हो पाईं. उन सब की विद्युत उत्पादन क्षमता 2,423.10 मेगावाट आंकी गई थी, लेकिन मार्च 2009 तक वह केवल 418.05 मेगावाट ही हो पाईं. कैग के अनुसार इसके मुख्य कारण थे भूमि प्राप्ति में देरी, वन विभाग से समय पर आज्ञा न ले पाना तथा विद्युत उत्पादन क्षमता में लगातार बदलाव करते रहना, जिससे राज्य सरकार को आर्थिक हानि हुई. अन्य प्रमुख कारण थे, योजना संभावनाओं की अपूर्ण समीक्षा, उनके कार्यान्वयन में कमी तथा उनका सही मूल्यांकन, जिसे उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड को करना था, न कर पाना. प्रगति की जाँच के लिए सही मूल्यांकन पद्धति की आवश्यकता थी जो बनाने, मशीनरी तथा सामान लगने के समय में हुई त्रुटियों को जाँच करने का काम नहीं कर पाई, न ही यह निश्चित कर पाई कि वह त्रुटियाँ फिर न हों. निजी कंपनियों पर समझौते की जो शर्तें लगाई गई थीं उनका पालन भी नहीं हो पाया.यह रिपोर्ट कैग की वेबसाइट पर उपलब्ध है.

जरूरी है कि सजग सामयिक नीति ही न बनाई जावे उसका समुचित परिपालन भी हो
इन संदर्भो में समूची जल विद्युत नीति , बांधो के निर्माण , उनके आकार प्रकार की निरंतर समीक्षा हो , वैश्विक स्तर की निर्माण प्रणालियो को अपनाया जावे , गुणवत्ता , समय , जनभावनाओ के अनुरूप कार्य सुनिश्चित कया जावे . प्रोजेक्ट रिपोर्ट को यथावत मूर्त रूप दिया जाना जरूरी है , तभी बिजली उत्पादन में बांधो की वास्तविक भूमिका का सकारात्मक उपयोग हो सकेगा .

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