कारपोरेट जगत के सामाजिक उत्तरदायित्व: विद्युत क्षेत्र
विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर (मप्र) 482008
मो. 9425806252
पुरानी कहावत है कि जब हम बुजुर्गो के लगाये हुए वृक्षो के आम खाते है तो हमारा दायित्व बनता है कि हम आने वाली पीढियों के लिए कुछ नये वृक्ष लगा जाये। इसी व्यवस्था का नाम सभ्यता है और यही सामाजिक उत्तरदायित्व है। कारपोरेट जगत समाज का अभिन्न हिस्सा है। सारी व्यापारिक प्रगति, कंपनियों के लाभांष के नित नये बढते आंकडे समाज के उसी प्रतिसाद का परिणाम होते है, जिसके अंतर्गत आम आदमी किसी कंपनी के उत्पाद या सेवाओं को स्वीकार करता है और इस तरह कंपनी का ब्रांड नेम स्थापित होता है।
एक नीति कथा है जिसमें बताया गया है कि व्यक्ति को अपनी आय के चार हिस्से करने चाहिए पहले हिस्से से उसे ऋण चुकाना चाहिए, दूसरे हिस्से को उधार देना चाहिए, तीसरे हिस्से को सुरक्षित भविष्य के लिए संग्रहित करना चाहिए और चैथे हिस्से का ही उपयोग करना चाहिए। इसका गूढ अर्थ यह है कि पहले हिस्से का उपयोग बुजुर्गो की सेवा के लिये करके उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी तथा आभार व्यक्त करना चाहिए कि उन्होनें हमें इस योग्य बनाया कि हम आज धनार्जन कर पा रहे है । दूसरे हिस्से को उधार देने का अर्थ है कि हम अपने बच्चो को अच्छी से अच्छी परवरिष देकर समाज का जिम्मेदार नागरिक बनाये उन्हें श्रेष्ठतम संस्कार और अच्छी षिक्षा दें। तीसरा हिस्सा किसी आकस्मिकता हेतु सुरक्षित रखना चाहिए जिससे हमें कभी आवष्यकता पडने पर किसी के सामने हाथ न फैलाना पडे। और चैथा हिस्सा ही संयम एवं मितव्ययिता से दैनिक जीवन के उपयोग हेतु उपयोग में लाना चाहिए। अर्थषास्त्र का यह बहुत सरल सिद्धांत कारपोरेट जगत पर भी लगभग इसी फार्मूले के आधार पर लागू होता है।
एक और दृष्टांत, एक मुर्गी थी जो प्रतिदिन एक सोने का अंडा देती थी। एक बार वह एक मूर्ख लालची व्यक्ति के हाथो लग गई। उस मूर्ख व्यक्ति ने सोचा कि क्यों न मैं मुर्गी को मारकर एक साथ उसके सारे सोने के अंडे निकाल लॅू और रातो रात धनवान हो जाउं उसने ऐसा ही किया और उसकी मूर्खता का क्या दुष्परिणाम हुआ यह बताने की आवष्यकता नहीं है। कारपोरेट जगत निष्चित ही लाभ कमाने के लिए सक्रिय रहता है। प्रत्येक सी.ई.ओ. की बैलेंस शीट ही उसकी योग्यता का मापदण्ड होती है पर लाभार्जन की लालच में हम मुर्गी को मारकर कुछ अर्जित कर सकते है ?
कारपोरेट जगत की सामाजिक जवाबदारी बहुत महत्वपूर्ण विषय है। एक लोकतांत्रिक देष में आम आदमी के हित के विकास हेतु सब कुछ केवल सरकार पर नही छोडा जा सकता। एक स्वस्थ्य समाज में सरकार का वास्तविक कार्य मात्र इतना होना चाहिए कि वह लाॅ एंड आर्डर बनाये रखे। बाह्य संकटो से देष की रक्षा करे एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के जरिए ऐसी स्वस्थ्य व्यवस्था हो कि कारपोरेट जगत फल फूल सके। लोगो के आंतरिक विकास की जवाबदारी कारपोरेट कल्चर का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। समाज के कमजोर हिस्से के विकास की जवाबदारी, विकलांग लोगो के जीवनयापन की व्यवस्था, खेलकूद, सांस्कृतिक गतिविधियाॅ इत्यादि इत्यादि अनेक ऐसे छोटे बडे क्षेत्र है जिनकी जवाबदारिया कारपोरेट जगत को स्वंय आगे बढकर उठाना चाहिए। समग्र एवं संतुलित विकास में ही कारपोरेट जगत का स्वंय की प्रगति भी सन्नहित है। यह सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना किसी बिजनेस मैनेजमेंट स्कूल की षिक्षा मात्र का विषय नहीं है यह कारपोरेट जगत के लोगों में स्वस्फूर्त जवाबदारी की आंतरिक भावना का विकास बनना चाहिए। तभी देष की प्रगति का रथ सही दिषा में तीव्र गति से आगे बढ सकता है।
जहाॅ तक विद्युत क्षेत्र के कारपोरेट उत्तरदायित्व का प्रष्न है वर्तमान समय में यह अन्य उद्योगों की तुलना में बहुत-बहुत ज्यादा है क्योंकि बिजली इन्फ्रास्ट्रक्चरल डेवलेपमेंट हेतु एक अनिवार्य शक्ति है। भारत कृषि प्रधान देष है कृषि के लिए सिंचाई एवं फसल आधारित उद्योगों के लिए बिजली एक अनिवार्यता है। अतः बिजली की दरों में व्यापारिक नीतियों से हटकर कृषि हेतु सस्ती बिजली की नीति जो लागत मूल्य से भी कम है अपनाई जा रही है इसे हमारी सरकार एवं विद्युत नियामक आयोगों ने भी मान्यता दी है। इसी तरह घरेलू उपयोग की बिजली में भी गरीब तबके को राहत देने के लिए एवं प्रगति के अवसरों में आगे बढाने के लिए घरेलू बिजली की दरों में भी टेलीस्कोपिक टेैरिफ स्वीकृत की जा रही है। जल प्रदाय हेतु दी जाने वाली बिजली भी सब्सिडी आधारित होना बिजली क्षेत्र के लिए विवष सामाजिक उत्तरदायित्व ही है किंतु कोई भी व्यापारिक संस्थान सतत् नुकसान उठाकर सामाजिक दायित्व का निर्वहन आखिर कब तक कर सकता है। लाभांष में हिस्सेदारी तो सर्वथा उचित है। पर लागत से कम मूल्य पर भी यदि इस तरह की जवाबदारी विवषता में उठानी पडे तो संस्थान का सरवाइवल ही दुष्कर हो जायेगा। आज सारे देष में विभिन्न बिजली कंपनियों के साथ लगभग यही हो रहा है जो उचित नहीं है। अतः विषेष रूप से बिजली के क्षेत्र में सरकार को हस्तक्षेप कर एक मध्य मार्ग अपनाना अनिवार्य हो चला है। किंतु प्रसन्नता का विषय है कि बिजली क्षेत्र इस ट्रांजिट पीरियड में भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से कभी पीछे नहीं है।
(लेखक को सामाजिक लेखन हेतु रेड एंड व्हाइट पुरस्कार मिल चुका है)
विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर (मप्र) 482008
मो. 9425806252
पुरानी कहावत है कि जब हम बुजुर्गो के लगाये हुए वृक्षो के आम खाते है तो हमारा दायित्व बनता है कि हम आने वाली पीढियों के लिए कुछ नये वृक्ष लगा जाये। इसी व्यवस्था का नाम सभ्यता है और यही सामाजिक उत्तरदायित्व है। कारपोरेट जगत समाज का अभिन्न हिस्सा है। सारी व्यापारिक प्रगति, कंपनियों के लाभांष के नित नये बढते आंकडे समाज के उसी प्रतिसाद का परिणाम होते है, जिसके अंतर्गत आम आदमी किसी कंपनी के उत्पाद या सेवाओं को स्वीकार करता है और इस तरह कंपनी का ब्रांड नेम स्थापित होता है।
एक नीति कथा है जिसमें बताया गया है कि व्यक्ति को अपनी आय के चार हिस्से करने चाहिए पहले हिस्से से उसे ऋण चुकाना चाहिए, दूसरे हिस्से को उधार देना चाहिए, तीसरे हिस्से को सुरक्षित भविष्य के लिए संग्रहित करना चाहिए और चैथे हिस्से का ही उपयोग करना चाहिए। इसका गूढ अर्थ यह है कि पहले हिस्से का उपयोग बुजुर्गो की सेवा के लिये करके उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी तथा आभार व्यक्त करना चाहिए कि उन्होनें हमें इस योग्य बनाया कि हम आज धनार्जन कर पा रहे है । दूसरे हिस्से को उधार देने का अर्थ है कि हम अपने बच्चो को अच्छी से अच्छी परवरिष देकर समाज का जिम्मेदार नागरिक बनाये उन्हें श्रेष्ठतम संस्कार और अच्छी षिक्षा दें। तीसरा हिस्सा किसी आकस्मिकता हेतु सुरक्षित रखना चाहिए जिससे हमें कभी आवष्यकता पडने पर किसी के सामने हाथ न फैलाना पडे। और चैथा हिस्सा ही संयम एवं मितव्ययिता से दैनिक जीवन के उपयोग हेतु उपयोग में लाना चाहिए। अर्थषास्त्र का यह बहुत सरल सिद्धांत कारपोरेट जगत पर भी लगभग इसी फार्मूले के आधार पर लागू होता है।
एक और दृष्टांत, एक मुर्गी थी जो प्रतिदिन एक सोने का अंडा देती थी। एक बार वह एक मूर्ख लालची व्यक्ति के हाथो लग गई। उस मूर्ख व्यक्ति ने सोचा कि क्यों न मैं मुर्गी को मारकर एक साथ उसके सारे सोने के अंडे निकाल लॅू और रातो रात धनवान हो जाउं उसने ऐसा ही किया और उसकी मूर्खता का क्या दुष्परिणाम हुआ यह बताने की आवष्यकता नहीं है। कारपोरेट जगत निष्चित ही लाभ कमाने के लिए सक्रिय रहता है। प्रत्येक सी.ई.ओ. की बैलेंस शीट ही उसकी योग्यता का मापदण्ड होती है पर लाभार्जन की लालच में हम मुर्गी को मारकर कुछ अर्जित कर सकते है ?
कारपोरेट जगत की सामाजिक जवाबदारी बहुत महत्वपूर्ण विषय है। एक लोकतांत्रिक देष में आम आदमी के हित के विकास हेतु सब कुछ केवल सरकार पर नही छोडा जा सकता। एक स्वस्थ्य समाज में सरकार का वास्तविक कार्य मात्र इतना होना चाहिए कि वह लाॅ एंड आर्डर बनाये रखे। बाह्य संकटो से देष की रक्षा करे एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के जरिए ऐसी स्वस्थ्य व्यवस्था हो कि कारपोरेट जगत फल फूल सके। लोगो के आंतरिक विकास की जवाबदारी कारपोरेट कल्चर का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। समाज के कमजोर हिस्से के विकास की जवाबदारी, विकलांग लोगो के जीवनयापन की व्यवस्था, खेलकूद, सांस्कृतिक गतिविधियाॅ इत्यादि इत्यादि अनेक ऐसे छोटे बडे क्षेत्र है जिनकी जवाबदारिया कारपोरेट जगत को स्वंय आगे बढकर उठाना चाहिए। समग्र एवं संतुलित विकास में ही कारपोरेट जगत का स्वंय की प्रगति भी सन्नहित है। यह सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना किसी बिजनेस मैनेजमेंट स्कूल की षिक्षा मात्र का विषय नहीं है यह कारपोरेट जगत के लोगों में स्वस्फूर्त जवाबदारी की आंतरिक भावना का विकास बनना चाहिए। तभी देष की प्रगति का रथ सही दिषा में तीव्र गति से आगे बढ सकता है।
जहाॅ तक विद्युत क्षेत्र के कारपोरेट उत्तरदायित्व का प्रष्न है वर्तमान समय में यह अन्य उद्योगों की तुलना में बहुत-बहुत ज्यादा है क्योंकि बिजली इन्फ्रास्ट्रक्चरल डेवलेपमेंट हेतु एक अनिवार्य शक्ति है। भारत कृषि प्रधान देष है कृषि के लिए सिंचाई एवं फसल आधारित उद्योगों के लिए बिजली एक अनिवार्यता है। अतः बिजली की दरों में व्यापारिक नीतियों से हटकर कृषि हेतु सस्ती बिजली की नीति जो लागत मूल्य से भी कम है अपनाई जा रही है इसे हमारी सरकार एवं विद्युत नियामक आयोगों ने भी मान्यता दी है। इसी तरह घरेलू उपयोग की बिजली में भी गरीब तबके को राहत देने के लिए एवं प्रगति के अवसरों में आगे बढाने के लिए घरेलू बिजली की दरों में भी टेलीस्कोपिक टेैरिफ स्वीकृत की जा रही है। जल प्रदाय हेतु दी जाने वाली बिजली भी सब्सिडी आधारित होना बिजली क्षेत्र के लिए विवष सामाजिक उत्तरदायित्व ही है किंतु कोई भी व्यापारिक संस्थान सतत् नुकसान उठाकर सामाजिक दायित्व का निर्वहन आखिर कब तक कर सकता है। लाभांष में हिस्सेदारी तो सर्वथा उचित है। पर लागत से कम मूल्य पर भी यदि इस तरह की जवाबदारी विवषता में उठानी पडे तो संस्थान का सरवाइवल ही दुष्कर हो जायेगा। आज सारे देष में विभिन्न बिजली कंपनियों के साथ लगभग यही हो रहा है जो उचित नहीं है। अतः विषेष रूप से बिजली के क्षेत्र में सरकार को हस्तक्षेप कर एक मध्य मार्ग अपनाना अनिवार्य हो चला है। किंतु प्रसन्नता का विषय है कि बिजली क्षेत्र इस ट्रांजिट पीरियड में भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से कभी पीछे नहीं है।
(लेखक को सामाजिक लेखन हेतु रेड एंड व्हाइट पुरस्कार मिल चुका है)